"अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्॥" (ऋग्वेद 1.1.1)
व्याकरणिक विच्छेद:
- अग्निम् - अग्नि (संज्ञा, द्वितीया विभक्ति) ईळे - स्तुति करता हूँ (धातु, लकार) पुरोहितम् - पुरोहित, अग्नि देवता को यज्ञ का अगुआ माना गया है। यज्ञस्य - यज्ञ का (षष्ठी विभक्ति) देवम् - देव (संज्ञा) ऋत्विजम् - ऋत के अनुसार कर्म करने वाला होतारम् - होता (अग्नि देव का दूसरा नाम) रत्नधातमम् - रत्न प्रदान करने वाला
अन्वय:
"अग्निम् ईळे, यज्ञस्य पुरोहितं देवम्, होतारं रत्नधातमम्।"
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यह मंत्र अग्नि देवता की स्तुति करता है, जो यज्ञ का मुख्य देवता और पुरोहित माना गया है। अग्नि को रत्नों का प्रदाता भी कहा गया है। व्यापक अर्थ: अग्नि को यहाँ यज्ञ का प्रधान और शुभारंभ करने वाला माना गया है। अग्नि देवता को यज्ञ के माध्यम से सभी देवताओं तक हमारी प्रार्थना और भेंट पहुंचाने वाला माना गया है। इसके माध्यम से वेद हमें सिखाता है कि यज्ञ और कर्म में अग्नि की उपस्थिति कैसे जीवन को समृद्ध और प्रकट करती है।
"त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ। वयं ते सुतरा भवेम॥" (ऋग्वेद 8.98.11)
व्याकरणिक विच्छेद:
- वैयाकरणिक विच्छेद: त्वम् - तुम (सर्वनाम, प्रथमा विभक्ति) हि - निश्चयार्थक अव्यय नः - हमारा (सर्वनाम, षष्ठी विभक्ति) पिता - पिता (संज्ञा) वसो - वासु, धन-धान्य का दाता त्वम् माता - तुम माता हो शतक्रतो - शतक्रतु, अनेक प्रकार की शक्तियों वाले बभूविथ - हो गए वयं - हम ते - तुम्हारे सुतरा - उत्तम संतति या संतान भवेम - होवें
अन्वय:
"त्वं नः पिता, त्वं माता, शतक्रतो, वयं ते सुतरा भवेम।"
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यहाँ देवता को पिता और माता के रूप में संबोधित किया गया है, जो सम्पूर्ण जगत को धारण करते हैं। वासु देवता को माता-पिता की भांति देखना उन्हें सम्मान देना है। व्यापक अर्थ: यह मंत्र मानवीय भावनाओं को उजागर करता है। यह हमारे पारंपरिक परिवार, माता-पिता की महत्ता और हमारे संस्कारों का सम्मान दिखाता है। देवता को माता-पिता के रूप में देखते हुए, हम मानते हैं कि उनका पालन-पोषण ही हमें जीवन और सुरक्षा देता है। इस प्रकार यह मंत्र प्रेम, कर्तव्य और आशीर्वाद का प्रतीक है।
2. ऋग्वेद का दूसरा मंत्र
व्याकरणिक विच्छेद:
- (मंत्र का पाठ)
अन्वय:
(मंत्र का अन्वय)
भावार्थ:
(मंत्र का व्यापक अर्थ)
3. मंत्र 3: "उद्वयं तमसस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम्। देवं देवत्रा सूर्यंगणमुत्तमम्॥" (ऋग्वेद 1.50.10)
व्याकरणिक विच्छेद:
- उद्वयं - ऊपर की ओर तमसः - अंधकार से परि - से परे ज्योतिः - प्रकाश पश्यन्त - देखते हैं उत्तरम् - ऊँचाई पर स्थित, उच्च देवम् - देवता देवत्रा - देवताओं का स्थान सूर्यम् - सूर्य गणम् - समूह, संग उत्तमम् - सर्वोच्च
अन्वय:
"उद्वयं तमसः परि ज्योतिः पश्यन्त उत्तरम्, देवं देवत्रा सूर्यं गणमुत्तमम्।"
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यहाँ सूर्य को अंधकार से ऊपर स्थित प्रकाश के रूप में देखा गया है। सूर्य देवता, देवताओं में उत्तम और सर्वोच्च हैं। व्यापक अर्थ: यह मंत्र ज्ञान के प्रकाश को अज्ञान के अंधकार से ऊपर उठाने का प्रतीक है। सूर्य देवता को यहाँ आध्यात्मिक ज्ञान के रूप में देखा गया है, जो हमें अंधकार से बाहर निकालते हैं। वेद हमें जीवन में सत्य और ज्ञान की ओर प्रेरित करता है, ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य अपने प्रकाश से अंधकार को समाप्त कर देता है। समापन इन मंत्रों में हमें वेदों की गहराई, व्यापकता और दृष्टिकोण का परिचय मिलता है। ऋग्वेद के ये मंत्र जीवन के मूलभूत तत्वों – अग्नि, माता-पिता का प्रेम, और ज्ञान के प्रकाश – के महत्व को बताते हैं। इन्हें पढ़कर हम अपने जीवन में आत्मिक, पारिवारिक, और सामाजिक मूल्यों को सहेजने की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।
"ॐ वायवायि धीयसे त्वरिता वि वायय। अस्मिन्पादेषु वायवः॥" (ऋग्वेद 1.134.1)
व्याकरणिक विच्छेद:
- वैयाकरणिक विच्छेद: वायवायि - वायु देव के लिए सम्बोधन, हे वायु देव! धीयसे - प्राप्त करने के लिए, बौद्धिकता के लिए त्वरिता - शीघ्र, जल्दबाजी में वि - विशेष रूप से वायय - प्रवाहित हो अस्मिन्पादेषु - इन चरणों में, इस स्थान पर वायवः - वायु के रूप में
अन्वय:
"वायवायि धीयसे त्वरिता वि वायय अस्मिन्पादेषु वायवः।"
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यह मंत्र वायु देवता को प्रार्थना करता है कि वे शीघ्रता से प्रवाहित हों और हमारी बुद्धि को बल दें। यहाँ वायु को ज्ञान और शक्ति का प्रतीक माना गया है। 4. व्यापक अर्थ: वायु यहाँ जीवन और चेतना के प्रवाह का प्रतीक है। यह हमें शक्ति, तीव्रता और प्रखरता प्रदान करता है। वायु का प्रवाह जीवन को सतत और स्थिर बनाए रखने में सहायक है। इसके माध्यम से हमें जीवन में सक्रियता और सजीवता का महत्व समझने को मिलता है।
2. "सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः। जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोऽमितौजाः॥" (ऋग्वेद 9.96.5)
व्याकरणिक विच्छेद:
- सोमः - सोम देवता (प्रकृति की अमृत ऊर्जा) पवते - प्रवाहित होता है जनिता - उत्पन्न करने वाला मतीनां - बुद्धियों का दिवो - आकाश का पृथिव्याः - पृथ्वी का अग्नेः - अग्नि का सूर्यस्य - सूर्य का इन्द्रस्य - इन्द्र का अमितौजाः - असीम बलशाली
अन्वय:
"सोमः पवते जनिता मतीनां, जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः, जनिता अग्नेः जनिता सूर्यस्य, जनिता इन्द्रस्य अमितौजाः।"
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यहाँ सोम को समस्त ब्रह्मांड के ऊर्जा स्रोत के रूप में चित्रित किया गया है, जो पृथ्वी, आकाश, अग्नि, सूर्य, और इन्द्र को उत्पन्न करता है। सोम को दिव्य ज्ञान और ऊर्जा का प्रतीक माना गया है। 4. व्यापक अर्थ: सोम की ऊर्जा समस्त संसार को जीवन देने वाली मानी गई है। यह जीवन की सभी शक्तियों और तत्वों का जनक है। यह मंत्र हमारे अस्तित्व को उस अदृश्य ऊर्जा से जोड़ता है, जो न केवल हमारी बुद्धि को प्रकाशित करती है, बल्कि प्रकृति की सभी वस्तुओं को उत्पन्न करती है। यह मंत्र हमें प्रकृति के प्रति आदर और धन्यवाद की भावना सिखाता है।
"मा नो महान्तमुत मा नो अरभ्यं मा न ऊनं वसोः सौमनस्यम्। मा नो वधीरमुत मा स दीर्घायुं मा न ऊरुं करसौ नष्टिमव्रज॥" (ऋग्वेद 10.10.4)
व्याकरणिक विच्छेद:
- मा - नहीं, निषेध नो - हमें महान्तम् - महान, बड़े को अरभ्यं - प्रारंभ करने योग्य ऊनम् - कमतर वसोः - ऐश्वर्य के सौमनस्यम् - सौम्यता, शांति वधीरम् - हानि दीर्घायुं - दीर्घायु, लंबा जीवन ऊरुं - बड़ा, विस्तृत कर - करने वाला नष्टिम् - विनाश, हानि अव्रज - विमुक्त हो
अन्वय:
"मा नो महान्तम्, मा नो अरभ्यं, मा नो ऊनं वसोः सौमनस्यम्। मा नो वधीरम्, मा स दीर्घायुं, मा न ऊरुं करसौ नष्टिमव्रज।"
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यहाँ प्रार्थना की गई है कि हमें न तो बड़े में, न छोटे में और न ही किसी माध्यम से कष्ट का अनुभव हो। यह जीवन में किसी भी प्रकार की बाधा से रक्षा का निवेदन है। व्यापक अर्थ: यह मंत्र जीवन के संतुलन, दीर्घायु और सुख-शांति की कामना करता है। यह हमें संयम, समानता और शांति का महत्व सिखाता है। ऋषि यहां यह प्रार्थना कर रहे हैं कि किसी भी प्रकार का दुख, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, हमारे जीवन में न आए और हमारा जीवन सुख-शांति से भरपूर रहे।
"ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय॥" (ऋग्वेद 10.85.1)
व्याकरणिक विच्छेद:
- ॐ - (प्रणव / ओंकार) – पवित्र ध्वनि, ब्रह्म का प्रतीक। असतो - असत् + "उ" (अव्यय) – असत् (असत्य / असत्यता)। मा - न, अर्थात् निषेध का भाव (यहाँ "मुझे" के अर्थ में भी)। सद्गमय - सत् + गमय – सत् (सत्य) + गमय (ले चल) – सत्य की ओर ले चल। तमसो - तमस् + "उ" (अव्यय) – तमस् (अंधकार / अज्ञानता)। ज्योतिर्गमय - ज्योतिः + गमय – ज्योति (प्रकाश / ज्ञान) + गमय (ले चल) – प्रकाश की ओर ले चल। मृत्योः - मृत्युः + "उ" (अव्यय) – मृत्युः (मृत्यु / नश्वरता)। अमृतं गमय - अमृतं + गमय – अमृत (अमरता / अमृतत्व) + गमय (ले चल) – अमरता की ओर ले चल।
अन्वय:
ॐ - ओंकार का उच्चारण (प्रारंभ में)। असतो मा सद्गमय - असतः (असत्य से) माँ (मुझे) सद्गमय (सत्य की ओर ले चलो)। तमसो मा ज्योतिर्गमय - तमसः (अंधकार से) माँ (मुझे) ज्योतिर्गमय (प्रकाश की ओर ले चलो)। मृत्योर्मा अमृतं गमय - मृत्योः (मृत्यु से) माँ (मुझे) अमृतं गमय (अमरता की ओर ले चलो
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यह मंत्र प्रार्थना करता है कि हमें असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, और मृत्यु से अमरता की ओर ले जाया जाए। यह आध्यात्मिक उन्नति और आत्मा की मुक्ति की कामना है। व्यापक अर्थ: यह मंत्र मानव जीवन के आध्यात्मिक मार्गदर्शन का प्रतीक है। असत्य से सत्य की ओर, अज्ञान से ज्ञान की ओर, और सीमित जीवन से अनंत जीवन की ओर का यह प्रवास मानव आत्मा की यात्रा को दर्शाता है। यह मनुष्य को नैतिक और आध्यात्मिक सुधार की प्रेरणा देता है, जिससे वह जीवन में सही दिशा प्राप्त कर सके।
2. "इन्द्रं वरदं विष्णुं धत्तमश्रुम्। अग्निं वायुर्मर्त्यमिवाः॥" (ऋग्वेद 1.45.1)
व्याकरणिक विच्छेद:
- (मंत्र का पाठ)
अन्वय:
(मंत्र का अन्वय)
भावार्थ:
(मंत्र का व्यापक अर्थ)
2. ऋग्वेद का दूसरा मंत्र
व्याकरणिक विच्छेद:
- इन्द्रं - इंद्र (संज्ञा, कर्मधारय) वरदं - वरद (दाता) विष्णुं - विष्णु (संज्ञा) धत्तमश्रुम् - धत्तमश्रु (समृद्धि देने वाला) अग्निं - अग्नि (संज्ञा) वायुः - वायु (संज्ञा) मर्त्यमिवाः - मृतकों की तरह (सर्वनाम/विशेषण) आः - आह्वान/प्रार्थना
अन्वय:
"इन्द्रं वरदं विष्णुं धत्तमश्रुम्। अग्निं वायुर्मर्त्यमिवाः॥"
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यह मंत्र इंद्र, विष्णु, अग्नि और वायु देवताओं की स्तुति करता है, जो वरदान देने वाले, समृद्धि प्रदान करने वाले और जीवन के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित करने वाले हैं। मृतकों की तरह इन देवताओं से आह्वान किया जाता है। व्यापक अर्थ: यह मंत्र प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं के महत्त्व को दर्शाता है। इंद्र को वर्षा का देवता, विष्णु को पालनहार, अग्नि को यज्ञ का अगुवा, और वायु को जीवनदायिनी माना गया है। यह सभी देवता मिलकर जीवन के संतुलन और समृद्धि सुनिश्चित करते हैं। मानव जीवन में इन देवताओं की भूमिका को समझकर, हम प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने का महत्व समझते हैं।
"आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः।" (ऋग्वेद 1.89.1)
व्याकरणिक विच्छेद:
- वैयाकरणिक विच्छेद: आ - आओ (आह्वानार्थक अव्यय) नो - हमें (सर्वनाम, कर्मकारक) भद्राः - शुभ, मंगलमय क्रतवः - कर्म करने वाले यन्तु - चलें (धातु: यन्, लकार: आज्ञा) विश्वतः - सभी दिशाओं से (विभक्ति: सर्वनाम)
अन्वय:
"आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः।"
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यह मंत्र प्रार्थना करता है कि सभी दिशाओं से हम पर शुभ और मंगलमय कर्म करें। यह सकारात्मक ऊर्जा और शुभकामनाओं की कामना है। व्यापक अर्थ: यह मंत्र सामाजिक और व्यक्तिगत कल्याण की इच्छा को दर्शाता है। सभी दिशाओं से सकारात्मक प्रभाव और शुभ कार्यों की प्राप्ति के लिए यह प्रार्थना की जाती है। यह समुदाय में सौहार्द, सहयोग और एकता की भावना को बढ़ावा देता है। व्यक्ति के जीवन में शुभता और समृद्धि लाने के लिए यह मंत्र एक सकारात्मक सोच और कार्य की प्रेरणा देता है। समापन ऋग्वेद के ये तीन मंत्र हमें आध्यात्मिकता, प्रकृति के साथ सामंजस्य और सकारात्मक जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। "ॐ असतो मा सद्गमय" हमें सत्य की ओर अग्रसर होने की राह दिखाता है, "इन्द्रं वरदं विष्णुं धत्तमश्रुम्" हमें प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं के महत्व का बोध कराता है, और "आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः" हमें सामाजिक और व्यक्तिगत कल्याण की कामना सिखाता है। इन मंत्रों का अध्ययन करके हम अपने जीवन में संतुलन, शांति और समृद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
"तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्तात् सर्प्रद्र्शे य: उदेति सूर्यः। सप्तास्वा यन्न स्खिदद्रयि्ते रथम्॥" (ऋग्वेद 1.50.4)
व्याकरणिक विच्छेद:
- 1. वैयाकरणिक विच्छेद: तत् - वह (सर्वनाम) चक्षुः - नेत्र, दृष्टि (संज्ञा) देवहितं - देवों के लिए कल्याणकारी (विशेषण) पुरस्तात् - आगे (अव्यय) सर्प्रद्र्शे - सर्प की गति से देखना (धातु) य: - जो (सर्वनाम) उदेति - उदय होता है (धातु, लकार) सूर्यः - सूर्य (संज्ञा) सप्तास्वा - सात घोड़ों से युक्त यन्न - जो (संबंधबोधक अव्यय) स्खिदद्रयि्ते - जो गतिशील है, रुकता नहीं रथम् - रथ (संज्ञा)
अन्वय:
"तत् चक्षुः देवहितं पुरस्तात् सर्प्रद्र्शे यः उदेति सूर्यः सप्तास्वा यन्न स्खिदद्रयि्ते रथम।"
भावार्थ:
यह मंत्र सूर्य की स्तुति करता है, जो देवताओं का नेत्र है और सात घोड़ों से युक्त रथ पर सवार होकर उदय होता है। यह जीवन को दिशा और दृष्टि प्रदान करने वाला है। 4. व्यापक अर्थ: सूर्य को देवताओं का नेत्र और सम्पूर्ण ब्रह्मांड का दृश्य माना गया है। सात घोड़ों का उल्लेख यहाँ सप्त ऋषियों और सप्त दिशाओं का प्रतीक है, जो जीवन में संतुलन का प्रतीक है। इस मंत्र से यह सिखने को मिलता है कि सूर्य जीवन का स्रोत है, जो निरंतर गति में रहकर हम सभी को प्रकाश और जीवन देता है। जीवन में नियमितता, अनुशासन, और संतुलन की महत्ता पर यह मंत्र जोर देता है।
"ऋतं च सत्यं चाभीद्धात् तपसोऽध्यजायत। ततः स यादव्रयद्भूतम् यतकिञ्च यच्चभ्य च॥" (ऋग्वेद 10.190.1)
व्याकरणिक विच्छेद:
- वैयाकरणिक विच्छेद: ऋतम् - ऋत, cosmic order, सत्यता का नियम च - और (अव्यय) सत्यम् - सत्य (संज्ञा) चाभीद्धात् - प्रस्फुटित हुआ, उद्भूत हुआ (धातु, लकार) तपसः - तपस्या से (संज्ञा) अध्यजायत - उत्पन्न हुआ ततः - तब (अव्यय) स - वह (सर्वनाम) यद् - जो भी (सर्वनाम) अव्रयद्भूतम् - समस्त भूतों को धारण करने वाला यत् किं च - जो कुछ भी है यच्च अभ्य - और जो सभी ओर है
अन्वय:
"ऋतम् च सत्यं च अभीद्धात् तपसः अध्यजायत। ततः स यत् अव्रयद् भूतम् यत् किं च यच्च अभ्य।"
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यह मंत्र ऋत (सत्य का नियम) और सत्य के उत्पन्न होने की बात करता है, जो तपस्या से उद्भूत हुए हैं। यह अस्तित्व के मूलभूत सिद्धांतों का वर्णन है, जो संपूर्ण सृष्टि को धारण करते हैं। व्यापक अर्थ: यह मंत्र हमें सिखाता है कि सत्य और नियम (ऋत) का पालन सभी अस्तित्व का आधार है। तपस्या से उत्पन्न, यह सिद्धांत जीवन में व्यवस्था, अनुशासन, और संतुलन बनाए रखते हैं। यह पूरे ब्रह्मांड के संतुलन और सृष्टि के पीछे की मूल ऊर्जा की बात करता है। जीवन में सत्य के महत्व को पहचानना और उसका पालन करना हमारे अस्तित्व की नींव है।
2. ऋग्वेद का दूसरा मंत्र
व्याकरणिक विच्छेद:
- (मंत्र का पाठ)
अन्वय:
(मंत्र का अन्वय)
भावार्थ:
(मंत्र का व्यापक अर्थ)
"समुद्रादूर्मिः शुचिर्यति। गृतेन अग्निस्तन्वानः। ईयते दिवि सूर्यो॥" (ऋग्वेद 7.87.1)
व्याकरणिक विच्छेद:
- समुद्रात् - समुद्र से (पंचमी विभक्ति) ऊर्मिः - तरंग, लहरें (संज्ञा) शुचिः - शुद्ध, पवित्र (विशेषण) यति - जाती है (धातु, लकार) गृतेन - तेल/घृत से अग्निः - अग्नि (संज्ञा) तन्वानः - फैलता हुआ ईयते - उठता है, प्रवाहित होता है (धातु, लकार) दिवि - आकाश में सूर्यः - सूर्य (संज्ञा)
अन्वय:
"समुद्रात् ऊर्मिः शुचिः यति, गृतेन अग्निः तन्वानः ईयते, दिवि सूर्यः।"
भावार्थ:
विशेष अर्थ: यह मंत्र समुद्र से उठने वाली शुद्ध लहरों की बात करता है, साथ ही घृत से फैलते हुए अग्नि और आकाश में उदित सूर्य का वर्णन करता है। यह प्राकृतिक घटनाओं के माध्यम से जीवन की शक्ति और उर्जा का प्रतीक है। व्यापक अर्थ: इस मंत्र में समुद्र, अग्नि, और सूर्य को सृष्टि की आधारभूत शक्तियों के रूप में चित्रित किया गया है। समुद्र की लहरें जीवन की लय और प्रवाह का प्रतीक हैं; अग्नि ऊर्जा और प्राणशक्ति का प्रतीक है, और सूर्य जीवनदायी शक्ति है जो सबको प्रकाश और उष्मा देता है। यह मंत्र प्रकृति के तीन महत्वपूर्ण तत्वों के माध्यम से हमें बताता है कि सृष्टि में सब कुछ एक लय में चलता है, और हमें भी उस लय में संतुलित होकर रहना चाहिए। जीवन में पवित्रता, ऊर्जा और सजीवता के महत्व को यह मंत्र रेखांकित करता है।
मंत्रों में ऋग्वेद का गूढ़ ज्ञान और प्रकृति की गहरी समझ सामने आती है। समुद्र, अग्नि, और सूर्य को प्रकृति के शक्तिशाली प्रतीकों के रूप में चित्रित किया गया है, जो जीवन को गति, ऊर्जा और दिशा प्रदान करते हैं। इन मंत्रों के माध्यम से ऋषि हमें सिखाते हैं कि प्रकृति से जुड़कर हम अपनी आत्मा में संतुलन, शुद्धता, और शक्ति ला सकते हैं। इस प्रकार, ये मंत्र हमें प्रकृति के प्रति प्रेम, आदर, और सह-अस्तित्व की भावना को विकसित करने की प्रेरणा देते हैं।
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